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शेखर : एक जीवनी (भाग 1)

बालक के मन में यह प्रश्न ही रहा। वह दूर बैठे उस विधवा की पूजा तक करने लग गया, जो इस बात का अभिमान कर सकती है, फूलाँ भी उसके लिए एक पददलित देवी-सी हो गयी, किन्तु उसका उनके घर जाना नहीं हुआ। वह नित्य रात को उनकी हँसी सुनकर सोचता, मैं भी इनके खेल में शामिल हो सकूँ, किन्तु दिन में वह उस घर के बाहर ही रुक जाता और लौट आता, न जाने क्यों!

आज वह समझता है उस भाव को, आज वह उस भयंकर यन्त्रणा का भी कुछ अनुमान कर सकता है, जिसे भोग चुकने के बाद ही उस विधवा माँ ने एक स्वरक्षात्मक अस्त्र की तरह यह अधिमान प्राणों में भरा होगा, वह यह भी समझ सकता है कि किस दृप्त अवमानना के भाव से वह फूलाँ को भी यह अभिमान करना सिखाती होगी-आज जब वह जानता है कि इस प्रकार यह समस्या दूर नहीं हो सकती, यह अभिमान अनुचित है, किन्तु यह जानकर भी उसकी विवशता से सहानुभूति और समवेदना का अनुभव करता है। आज वह समझता है कि कैसे यहूदी लोग संसार की सबसे अपमानित और प्रपीड़ित जाति होकर, उसी अपमान और प्रपीड़न से अपनी जीवन शक्ति पाते हैं, अवज्ञा से भरकर झुकते हैं, और नष्ट नहीं होते...किन्तु आज जो फल वह ज्ञान के वृक्ष से तोड़ रहा है, उसका विष-बीज वहीं बोया गया था, उसी दिन...

उसके बहुत दिन बाद की-बीस वर्ष बाद की-एक बात मुझे याद आती है। उन दिनों जब मैं भागा फिरता था आत्मरक्षा के लिए। एक दिन, ज्येष्ठ की कड़ाके की धूप में, मैं और एक और व्यक्ति बीस मील चलकर आये थे। प्यास बहुत लगी थी; पानी कहीं दीख नहीं पड़ता था। हम सड़क पर चुपचाप चले जा रहे थे।

एकाएक हमें सामने से आता हुआ एक व्यक्ति दिखाई दिया। मैंने उससे पूछा, “क्यों भाई, यहाँ कहीं पानी मिलेगा?”

“यहाँ पास तो नहीं; वह उधर नदी है, वहाँ होगा।”

“कितनी दूर?”

“यही कोई तीन-एक मील है-”

मुझे एक विचार आया, मैंने पूछा, “तुम कहाँ रहते हो?”

उसने एक ओर इशारा करके कहा, “वहाँ पास ही मेरा घर है-उस झुरमुट के पीछे।”

“तो, वहाँ तो पानी होगा?”

“नहीं जी।”

“ऐं? घर में पानी नहीं होगा? तो तुम्हारा काम कैसे चलता है?”

वह चुप।

मैंने फिर कहा, “चलो, पानी पिला दो न? बहुत प्यासे हैं।”

वह फिर चुप।

मैंने कहा, “तुम नहीं आते तो न सही। हम वहीं माँग लेंगे। वहाँ कोई है?”

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